संस्कृति की रंगत, परंपरा का मान,
क्या एक कागज़ में बाँधोगे पहचान?
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,
हर दिल की अपनी एक परछाई।

संस्कृति की जड़ें, आस्था का आधार,  
काट देगा क्या ये सब, एक कैंची का वार?  

रीति-रिवाजों की गूँज दबाकर,
क्या होगा न्याय की लौ जलाकर?

हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,
सभी की परंपराएँ भाई।

जरूरी था क्या, यह बदलाव?
या सत्ता का बस एक चुनाव?

कहीं किसी का हक़ न जाए,
न्याय की मूरत धूल न खाए।

उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम,  
हर कोने का सम्मान बने।  
एक भाषा हो भारत में,  
हर दिल की  पहचान बने।  

तो मत छेड़ो विधान को,  
उस पावन संविधान को।  
यह केवल कागज़ नहीं, ये मूरत है,  
भारत के आत्मा की सूरत है।  
जो जोड़ता है हमें, उस अमर पहचान को।
मत छेड़ो विधान को, बाबा के संविधान को,  

बेरोज़गारी का साया, हर गली में चीखता है,
नौजवान का सपना, कूड़े में सड़ता है।
बेरोज़गारी की आँधी, घर-घर को चाट रही,
डिग्री हाथ में लिए, उम्मीद थक कर सो रही।
न जाने क्या क्या सबके सपने उजाड़े है,
30,40 की उम्र हो गईं, अभी तक कंवारे है,